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दंश के अंश …

srijan
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तुमने मुट्ठी भर रेत को कह दिया मरु रेगिस्तान ,
और कच्चे से काँटे को दे डाली शूल की उपमा |
मरु रेगिस्तान कहाने पर भी केंद्र मान ,
वह तुम्हे ईष्ट मान करती रही तुम्हारी परिक्रमा |
कहते रहे मैं केंद्र और विश्व भी मैं ही हूँ ,
दरीचों के पार देखने की करते रहे वर्जना ,
करते रहे उस निःसाहाय की अवहेलना |
तब उसने विश्वास की पावन शिला पर खड़े हो ,
रेतीले जीवन की अग्नि पर डाला था निर्मल जल
वाष्प के साथ नभ पर उपर तक उठ कर उसे,
पड़ा था नीचे गिर बूँद बन टूटना और बिखरना |
तुम्हारे विराट बरगदी तने पर लिपटना थी ,
उसकी थी दर्दनाक ,व्यथा और विवशता |
व्यथा विवशता पर उसकी तुम हँसे गर्व से ,
और ना भूले देनी उसे मरु रेगिस्तान की उपमा |
जीवन भर उस असहाय की करते रहे उपेक्षा ,
तुम्हारी प्रताड़ना ,गर्जना और, अवहेलना की
दंश के अंश के दाग बहुत से अभी भी शेष हैं |
समय असमय सालते हैं ,टीस देते हैं ,दर्द देते हैं
पुराने घाव के दंश के अंश ही तो नासूर कहाते |
तुमने मुट्ठी भर रेत को कह दिया मरु रेगिस्तान,
और कच्चे से काँटे को दे डाली शूल की उपमा |

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